Tuesday, August 4, 2009

आतंक

ओ दहसतगर्दो इतना ना गुमान करो

दामन दागदार हो जब

इतना ना इतराओ

असलहा हाथ में हो जब

ये विरासत में मिली कोई

अमूल्य धरोहर है नही

बेगुनाहों के लहू से

धरा है रंजित कर डाली

मानवत्ता को शर्मसार कर

जनम देने वाली की खोख लजा डाली

इस आतंक की दंस

अब और कितनी दुनिया झेलेगी

ख़त्म करो इस खुनी खेल को

मजहब के नाम सहादत का नाटक बंद करो

शर्म करो लोट आओ

अमन चैन और ना जलाओ

कोम को विनाश से बचावो

जीवन मानव सेवा मैं अर्पण कर

सुंदर भविष्य की रचना मैं मददगार बनो

आतंक को सदा के लिए अलविदा कह डालो

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