Friday, December 4, 2009

अंतर्मन की व्यथा

चिंता की लकीरे मस्तस्क पे उभर आई

देख के हश्र जिन्दगी का

अंतर्मन की व्यथा मुखरित हो आई

आतंक का ग्रास बन रहा है मानव

सभ्य समाज में ये पीड़ा कहा से चली आई

कहीं इस काल की परछाई

हमारे अपने ही विचार धाराओ की उपज तो नहीं

सोच सोच ये चिंता मन को खायी

भय मुक्त समाज की रचना करने हेतु

किसीने तो करनी होगी पहल आगे आय

इसलिए ले लिया निर्णय ये आज

जलाऊ एक ऐसी मशाल

भस्म हो जाए जिसमे सारे आतंकवाद

कौम के लिए बन जाऊ एक मिशाल

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