Saturday, October 2, 2010

द्वन्द

उलझ गयी जिन्दगी

मंदिर मस्जिद के द्वन्द में

कोई कहे मंदिर बने

कोई कहे मस्जिद बने

पर ये भूल गए सभी

लिखी हो जिसकी इबारत

बेगुनाहों के खून से

कबूल नहीं होगी

रब को वो इबादत भी कभी

फिर क्यों करे द्वन्द

निकल मंदिर मस्जिद की होड़ से

लिखे एक नई इबारत

क्यों ना फिर भाई चारे के स्नेह की

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